Monday, July 11, 2011

गुज़र गया फूलों का मौसम

गुज़र गया फूलों का मौसम चर्चा फ़िऱ भी फूल की।
इसी बात पर और कंटीली काया हुई बबूल की।


जुड़ने वाले हाथ कटे हैं झुकने वाला सिर गिरवी
ऐसा लगता है मैंने मंदिर में आकर भूल की।


रोज़ खुली रामायण पढ़ते-पढ़ते जाते छोड़ पिता
बड़े प्यार से हवा बिछा जाती है परतें धूल की।


राजतिलक की रस्म उसी से होगी यह मालूम न था
वरना राख जुगाकर रखता स्वाहा हुए उसूल की।


संसदीय गालियाँ सुरक्षित रखिए ग्रंथागारों में
ग़ज़लों को क्या रखना इनमें बातें भरीं फिज़ूल की।


फ़िऱ बंदूकें जीतीं, जीते झूठे वादे और नक़ाब
गांधी जी के तीन बंदरों ने फ़िऱ हार क़बूल की।


बूढ़ी आँखें रो देंगी इस महिफ़ल में यह मत बोलो
किसने अपनी क़ीमत अपनों से किस तरह वसूल की।





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