Monday, July 11, 2011

गुज़र गया फूलों का मौसम

गुज़र गया फूलों का मौसम चर्चा फ़िऱ भी फूल की।
इसी बात पर और कंटीली काया हुई बबूल की।


जुड़ने वाले हाथ कटे हैं झुकने वाला सिर गिरवी
ऐसा लगता है मैंने मंदिर में आकर भूल की।


रोज़ खुली रामायण पढ़ते-पढ़ते जाते छोड़ पिता
बड़े प्यार से हवा बिछा जाती है परतें धूल की।


राजतिलक की रस्म उसी से होगी यह मालूम न था
वरना राख जुगाकर रखता स्वाहा हुए उसूल की।


संसदीय गालियाँ सुरक्षित रखिए ग्रंथागारों में
ग़ज़लों को क्या रखना इनमें बातें भरीं फिज़ूल की।


फ़िऱ बंदूकें जीतीं, जीते झूठे वादे और नक़ाब
गांधी जी के तीन बंदरों ने फ़िऱ हार क़बूल की।


बूढ़ी आँखें रो देंगी इस महिफ़ल में यह मत बोलो
किसने अपनी क़ीमत अपनों से किस तरह वसूल की।





Thursday, July 7, 2011

इन पानी जैसी ग़ज़लों का पत्थर सा माज़ी होता है

बाहर आने को मुश्किल से कोई दुख राज़ी होता है।
इन पानी जैसी ग़ज़लों का पत्थर सा माज़ी होता है।


रूहानी सेहत की बातें रहने दो अब मरहम बाँटो
हर ग़म होता है जीते जी, हर ज़ख्म मज़ाज़ी होता है।


आशिक हो तो क़ुर्बत रखना काले तेज़ाबी लम्हों में
चांदनी रात में छत पर तो हर शख़्स नियाज़ी होता है।


साज़िश की मछली के भीतर सच कै़दी पड़ा अंगूठी सा
जो राजा से बेख़ौफ़ कहे वह असली क़ाज़ी होता है।


न्यौते की तरह नये पत्ते जब भी डालों पर आते हैं
चिड़िया बन कर कुछ तिनकों में बस जाने का जी होता है।

Wednesday, July 6, 2011

ओ मेरी मुमताज नहीं बनते दिल्ली में ताजमहल

पूरी साड़ी फटी हुई है, नयी किनारी दिल्ली में।
तरल आग की लहर बेचती बर्फ हमारी दिल्ली में।


हर मज़हब तंदूर-छाप, हर नीयत ख़ुद में खोयी सी
खंज़र जिसके हाथ लगा वह शख़्स शिकारी दिल्ली में।


साबुत जूते, ज़ख्मी तलवे कैसी किरचें बिखरी हैं
रोज़ बुतों की आईनों से मारामारी दिल्ली में।


हश्र हवा में गुब्बारे सा होगा ग़र जेबें खाली
हलके हैं इंसान बहुत पर सिक्के भारी दिल्ली में।


इतिहासों से अखबारों तक एक कहानी मिलती है
सबसे महँगी है दिल्ली पर दावेदारी दिल्ली में।


बाहर से चमकीले धुले हसीन राजपथ दिखते हैं
भीतर-भीतर गंदे नालों की तैयारी दिल्ली में।


कुछ हरियाली क़ब्रों पर, कुछ सत्ता के पिछवाड़े में
सावन के आशिक ढूंढें सावन सरकारी दिल्ली में।


टंग जाएँगे छिले हुए मुर्गे से अगर लज़ीज़ दिखे
नरम गोश्त में दाँत गड़ाने की बीमारी दिल्ली में।


आधी ख़बरें उठा पटक की आधी नूरा कुश्ती की
पढते रहिए किसने किसको लंगड़ी मारी दिल्ली में।


ओ मेरी मुमताज नहीं बनते दिल्ली में ताजमहल
पूछो मत किस तरह चांदनी रात गुज़ारी दिल्ली में।


Tuesday, July 5, 2011

दो खलाओं का सफर साथ है दिन-रात मेरे

शाम जो सुर्ख परिंदे की तरह उड़ती है
मेरे मुस्ताक  नशेमन की तरफ मुड़ती है
पर सरे राह चटख रंग बिखर जाता है
गर्द-आलूद हवाओं में बिखर जाता है
नीमतारीक़ मनाजिर का असर क्या कहिए
राख जाती है  निगाहों पे पसर क्या कहिए
राख घुलती है लहू लाल नहीं रहता है
जान ओ दिल का वही हाल नहीं रहता है
एक सितारा जो सरं अर्श  टिमटिमाता है
मोम-सा वक़्त का रुखसार पिघल जाता है
वक्त बहता है किसी स्याह समंदर की तरफ
लौट पड़ता शहर आस लिए घर की तरफ
मैं कहां जाऊं कहां जाएं खयालात मेरे
दो खलाओं का सफर साथ है दिन-रात मेरे
इक खला सात फलक पार तलक काबिज़ है
इक खला है तो मेरे दिल का शहर खारिज है
दो खलाओं से बिंघा उम्र खला में तब्दील
और ऐसे में वहां ज़र्द चांद की कंदील
चांद गाता है कोई नज़्म शबाना सुर में
और करता है शुरू दिल को सताना सुर में