Wednesday, July 6, 2011

ओ मेरी मुमताज नहीं बनते दिल्ली में ताजमहल

पूरी साड़ी फटी हुई है, नयी किनारी दिल्ली में।
तरल आग की लहर बेचती बर्फ हमारी दिल्ली में।


हर मज़हब तंदूर-छाप, हर नीयत ख़ुद में खोयी सी
खंज़र जिसके हाथ लगा वह शख़्स शिकारी दिल्ली में।


साबुत जूते, ज़ख्मी तलवे कैसी किरचें बिखरी हैं
रोज़ बुतों की आईनों से मारामारी दिल्ली में।


हश्र हवा में गुब्बारे सा होगा ग़र जेबें खाली
हलके हैं इंसान बहुत पर सिक्के भारी दिल्ली में।


इतिहासों से अखबारों तक एक कहानी मिलती है
सबसे महँगी है दिल्ली पर दावेदारी दिल्ली में।


बाहर से चमकीले धुले हसीन राजपथ दिखते हैं
भीतर-भीतर गंदे नालों की तैयारी दिल्ली में।


कुछ हरियाली क़ब्रों पर, कुछ सत्ता के पिछवाड़े में
सावन के आशिक ढूंढें सावन सरकारी दिल्ली में।


टंग जाएँगे छिले हुए मुर्गे से अगर लज़ीज़ दिखे
नरम गोश्त में दाँत गड़ाने की बीमारी दिल्ली में।


आधी ख़बरें उठा पटक की आधी नूरा कुश्ती की
पढते रहिए किसने किसको लंगड़ी मारी दिल्ली में।


ओ मेरी मुमताज नहीं बनते दिल्ली में ताजमहल
पूछो मत किस तरह चांदनी रात गुज़ारी दिल्ली में।


No comments:

Post a Comment